मध्यप्रदेश के प्रमुख मेले
- मेलों में भारतीय संस्कृति की झलक पाई जाती है। इन मेलों में सामाजिकता, संस्कृति आदि का अद्वितीय सम्मिलन होता है। मध्यप्रदेश में 1,400 स्थानों पर मेले लगते हैं। उज्जैन जिले में सर्वाधिक 227 मेले और होशंगाबाद जिले में न्यूनतम 13 मेले आयोजित होते हैं। मार्च, अप्रैल और मई में सबसे ज्यादा मेले लगते हैं, इसका कारण ये हो सकता है कि इस समय किसानों के पास कम काम होता है। जून,जुलाई, अगस्त और सितंबर में नहीं के बराबर मेले लगते हैं। इस समय किसान सबसे अधिक व्यस्त होते हैं और बारिश का मौसम भी होता है। मध्यप्रदेश के मुख्य मेले निम्नानुसार है:-
सिंहस्थ:-कुंभ
पवित्रतम मेला माना जाता है। इस मेले में लोगों की अत्यंत श्रद्धा रहती है। मध्यप्रदेश का उज्जैन एकमात्र स्थान है। जहां कुंभ का मेला लगता है। विशेष ग्रह स्थितियों के अनुसार कुंभ मेला लगता है। यह ग्रह स्थिति प्रत्येक बारह साल में आती है। इसलिए उज्जैन में लगने वाले कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है।
रामलीला का मेला:-
ग्वालियर जिले की भांडेर तहसील में यह मेला लगता है। 100 वर्षों से अधिक समय से चला आ रहा यह मेला जनवरी-फरवरी माह में लगता है।
पीर बुधन का मेला:-
शिवपुरी के सांवरा क्षेत्र में यह मेला 250 सालों से लग रहा है। मुस्लिम संत पीर बुधन का यहाँ मकबरा है। अगस्त-सितंबर में यह मेला लगता है।
नागाजी का मेला:-
अकबर कालीन संत नागाजी की स्मृति में यह मेला लगता है। मुरैना जिले के पोरसा गांव में एक माह मेला चलता है। पहले यहाँ बंदर बेचे जाते थे। अब सभी पालतू जानवर बेचे जाते हैं।
हीरा भूमिया मेला
हीरामन बाबा का नाम ग्वालियर और इसके आस-पास के क्षेत्रों में प्रसिद्ध है। यह कहा जाता है कि हीरामन बाबा के आशीर्वाद से महिलाओं का बांझपन दूर होता है। कई सौ वर्षों पुराना यह मेला अगस्त और सिंतबर में आयोजित किया जाता है।
तेताजी का मेला
तेताजी अच्छे इंसान थे। कहा जाता है कि उनके पास एक ऐसी शक्ति थी जो शरीर से सांप का जहर उतार देती थी। गुना जिले के भामावड़ में पिछले 70 वर्षों से यह मेला लगता चला आ रहा है। तेताजी की जयंती पर यह मेला आयोजित होता है। निमाड़ जिले में भी इस मेले का आयोजन होता है।
जागेश्वरी देवी का मेला
हजारों सालों से अशोक नगर जिले के चंदेरी नामक स्थान में यह मेला लगता चला आ रहा है। कहा जाता है कि चंदेरी के शासक जागेश्वरी देवी के भक्त थे।
महामृत्यंजना का मेला:–
रीवा जिले में महामृत्यंजना का मंदिर स्थित है जहाँ बसंत पंचमी और शिवरात्रि को मेला लगता है।
अमरकंटक का शिवरात्रि मेला
शहडोल जिले के अमरकंटक नामक स्थान (नर्मदा के उद्गम स्थल) में यह मेला लगता है। 80 वर्षों से चला आ रहा यह मेला शिवरात्रि को लगता है।
चंडी देवी का मेला
सीधी जिले के धीधरा नामक स्थान पर चंडी देवी को सरस्वती का अवतार माना जाता है। यहाँ पर मार्च-अप्रैल में मेला लगता है।
काना बाबा का मेला
होशंगाबाद जिले के सोढलपुर नामक गांव में काना बाबा की समाधि पर यह मेला लगता है।
कालूजी महाराज का मेला
पश्चिमी निमाड़ के पिपल्या खुर्द में एक महीने तक यह मेला लगता है कहा जाता है कि 200 वर्षों पूर्व कालूजी महाराज यहाँ पर अपनी शक्ति से आदमियों और जनवरों की बीमारी ठीक करते थे।
धमोनी उर्स
सागर जिले के धमोनी नामक स्थान पर बाबा मस्तान अली शाह की मजार पर अप्रैल-मई में यह उर्स लगता है।
शहाबुद्दीन औलिया का उर्स
मंदसौर जिले के नीमच नामक स्थान पर फरवरी माह में आयोजित किया जाता है। ये सिर्फ चार दिनों तक चलता है। यहां बाबा शहाबुद्दीन की मजार है।
मठ घोघरा का मेला
सिवनी जिले के मौरंथन नामक स्थान पर शिवरात्रि को 15 दिवसीय मेला लगता है। यहाँ पर प्राकृतिक झील और गुफा भी है।
सिंगाजी का मेला
सिंगाजी एक महान संत थे। पश्चिमी निमाड़ के पिपल्या गांव में अगस्त-सितंबर में एक सप्ताह को मेला लगता है।
बरमान का मेला
नरसिंहपुर जिले के सुप्रसिद्ध ब्रह्मण घाट पर मकर संक्रांति पर 13 दिवसीय मेला लगता है।
पर्व और उत्सव
सभ्यता और संस्कृति के विकास में पर्व या उत्सवों का महत्व पूर्ण स्थान है। मध्यप्रदेश में पूरे वर्ष विभिन्न सामाजिक और धार्मिक उत्सव आयोजित किए जाते हैं। कुछ प्रमुख निम्नलिखित है
.1 गणगौर
2.लारूकाजा
3. भाईदूज
.4 गंगा दशमी
5 आखातीज
6. हरेली
7संजा
.8 गोवरधन पूजा
9. नीरजा
.10 नवान्न
.11 घडल्या
.12 मेघनाथ
. 13रत्तानवा
. 14भगोरिया
15दशहरा
16. काकसार
17.सुआरा 18. होली
गणगौर
शिव और पार्वती की पूजा वाला यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में इसे गौर कहते हैं और कार्तिक में मनाते हैं । यह महिलाओं का पर्व है। मालवा में इसे दो बार मनाया जाता है। चैत (मार्च-अप्रैल) तथा भादो माह में स्त्रियां शिव-पार्वती की प्रतिमाएं बनाती हैं तथा पूजा करती हैं, पूजा के दौरान महिलाएं नृत्य करती हैं। बताशे बांटती हैं और प्रतिमाओं को जलाशय या नदी में विसर्जित करती हैं। विभिन्न भागों में इस पर्व से संबंधित अनेक कहानियाँ हैं।
भाईदूज
साल में दो बार मनाई जाती है। एक चैत माह में होली के उपरांत तथा दूसरी कार्तिक में दीपावली के बाद। यह रक्षा बंधन की तरह ही है। बहनें भाई को कुमकुम, हल्दी, चावल से तिलक करती हैं तथा भाई, बहनों को उनकी रक्षा करने का वचन देते हैं।
आखातीज
छत्तीसगढ़ की अविवाहित लड़कियों का प्रमुख त्यौहार है। मध्य प्रदेश के भी क्षेत्रो मे भी मनाया जाता है, वैशाख (अप्रैल-मई) माह का यह उत्सव दूसरे अर्थों में विवाह का स्वरूप लिए है। इसमें अकान की डालियों का मंडप बनाते हैं। इसके नीचे पड़ोसियों को दावत दी जाती है। कुछ स्थानों पर इसे अक्षय तृतीया भी कहते हैं।
संजा व मामुलिया
संजा अश्विन माह में 16 दिन तक चलने वाला कुआंरी लड़कियों का उत्सव है। लड़कियाँ प्रति दिन दीवार पर नई-नई आकृतियाँ बनाती हैं और शाम को एकत्र होकर गीत गाती हैं। बुन्देलखण्ड क्षेत्र की लड़कियों का ऐसा ही एक पर्व है मामुलिया है किसी वृक्ष की टहनी या झाड़ी (विशेष कर नींबू) को रंगीन करना या ओढ़नी पहनाकर उसमें फूलों को उलझाया जाता है। शाम को लड़कियाँ इस डाली को गीत गाते हुए किसी नदी या जलाशय में विसर्जित कर देती हैं।
नीरजा
नौ दिन तक चलने वाला महिलाओं का यह उत्सव दशहरे के पूर्व मनाया जाता है। इस अवसर पर स्त्रियाँ माँ दुर्गा की पूजा करती हैं। “मालवा” के कुछ क्षेत्रों में गरबा भी मनाया जाता है
घडल्या
नीरजा के नौ दिनों में लड़कियाँ घड़ल्या भी मानती हैं। समूह में लड़कियाँ, एक लड़की के सिर पर छिद्र युक्त घड़ा रखती है जिसमें दीपक जल रहा होता है। फिर दरवाज़े ,दरवाज़े जाती है और अनाज या पैसा एकत्र करती है। अविवाहित युवक भी इस तरह का एक उत्सव “छला” के रूप में मनाते हैं।
सुआरा
बुंदेलखण्ड क्षेत्र का “सुआरा” पर्व मालवा के घडल्या की तरह ही है। दीवार से लगे एक चबूतरे पर एक राक्षस की प्रतिमा बैठाई जाती है। राक्षस के सिर पर शिव-पार्वती की प्रतिमाएं रखी जाती है। दीवार पर सूर्य और चन्द्र बनाए जाते हैं। इसके बाद लड़कियाँ पूजा करती हैं और गीत गाती हैं।
दशहरा
प्रदेश का एक प्रमुख त्योहार है। इसे विजयादशमी कहते हैं। कुछ क्षेत्रों में इसे बिजय के प्रतिक स्वरूप राम की रावण पर विजय के रूप में मनाते हैं। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में इस दिन लोग एक-दूसरे से घर-घर जाकर गले मिलते हैं और एक दूसरे को पान खिलाते हैं।
गोवरधन पूजा (गोवर्धन)
कार्तिक माह में दीपावली के दूसरे दिन गोवरधन पूजा होती है। यह पूजा गोवर्धन पर्वत और गौधन से संबंधित है। महिलाएं गोबर से पर्वत और बैलों की आकृतियां बनाती हैं। मालवा में भील आदिवासी पशुओं के सामने अवदान गीत होड़ गाते हैं। गौड़ या भूमिया जैसी जातियां यह पर्व नहीं मनाती पर ,पशु पालक अहीर इस दिन खेर देव की पूजा करते हैं। चंद्रावली नामक कथा गीत भी इस अवसर पर गाया जाता है।
लारूकाज
गोंडों द्वारा नारायण देव के सम्मान में मनाया जाने वाला यह पर्व सुअर के विवाह का प्रतीक माना जाता है।
हरेली या हरीरी
किसानों के लिए इस पर्व का विशेष महत्व है। वे इस दिन अपने कृषि उपयोग में आने वाले उपकरणों की पूजा करते हैं। श्रावण माह की अमावस्या को यह पर्व मनाया जाता है। मंडला जिले यह इसी माह की पूर्णिमा को तथा मालवा क्षेत्र में अषाढ़ के महीने में मनाया जाता है। मालवा में इसे “हर्यागोधा” कहते हैं। स्त्रियां इस दिन व्रत रखती हैं।
मेघनाथ
फाल्गुन के पहले पक्ष में यह पर्व गोंड आदिवासी मनाते हैं। इसकी कोई निर्धारित तिथि नहीं है। मेघनाद गोंडों के सर्वोच्च देवता है चार खंबों पर एक तख्त रखा जाता है जिसमें एक छेद कर पुन: एक खंभा लगाया जाता है और इस खंभे पर एक बल्ली आड़ी लगाई जाती है। यह बल्ली गोलाई में घूमती है। इस घूमती बल्ली पर आदिवासी रोमांचक करतब दिखाते हैं। नीचे बैठे लोग मंत्रोच्चारण या अन्य विधि से पूजा कर वातावरण बनाकर अनुष्ठान करते हैं। कुछ जिलों में इसे खंडेरा या खट्टा नाम से भी पुकारते हैं।
भगोरिया
फाल्गुन माह में मालवा क्षेत्र के भीलों का यह प्रिय उत्सव है। इसकी विशेष बात यह है कि इस पर्व में आदिवासी युवक-युवतियों को अपने जीवन साथी का चुनाव करने का अवसर मिलता है। भगोरिया हाट के दिन क्षेत्र भर से किसान, भील आदिवासी सज धज कर तीर तलवारों से लेस होकर हाट वाले गांव में पहुंचते हैं। वहाँ मैदान में ये लोग डेरे लगाते हैं। हाट के दिन परिवार के बुजुर्ग डेरी में रहते हैं पर अविवाहित युवक-युवतियां हाथ में गुलाल लेकर निकलते हैं। कोई युवक जब अपनी पसंद की युवती के माथे पर गुलाल लगा देता है तो और लड़की उत्तर में गुलाल लड़के के माथे पर लगा देती है तो यह समझा जाता है कि दोनों एक दूसरे को जीवन साथी बनाना चाहते हैं। पूर्व स्वीकृति की मोहर तब लग जाती है जब लड़की लड़के के हाथ से माजून (गुड़ और भाँग ) खा लेती है। यदि लड़की को रिश्ता मंज़ूर नहीं होता तो वह लड़के के माथे पर गुलाल नहीं लगाती। भगोरिया को दुश्मनी निकालने का दिन भी समझा जाता है।
काकसार
स्त्री व पुरूषों को एकान्त प्रदान करने वाला यह पर्व अबूझमाड़िया आदिवासियों का प्रमुख पर्व है। इसकी विशेष बात यह है कि युवा लड़के लड़कियाँ एक दूसरे के गाँवों में नृत्य करते पहुंचते हैं। वर्षा की फसलों में जब तक बालियां नहीं फूटती, अबूझमाड़िया स्त्री-पुरूषों में एकान्त में मिलना वर्जित होता है। काकसार उनके इस व्रत को तोड़ने का उपयुक्त अवसर होता है। काकसार में लड़के और लड़कियाँ अलग-अलग घरों में रात भर नाचते और आनंद मनाते हैं। कई अविवाहित युवक-युवतियों को अपने लिए श्रेष्ठ जीवन साथी का चुनाव करने में यह पर्व सहायक सिद्ध होता है।
रत्तनवा
मंडला जिले के बैगा आदिवासियों का यह प्रमुख त्योहार है।
होली
रंगों का पर्व होली फाल्गुन महीने में पूर्णिमा को मनाया जाता है। सभी वर्गों के लोग, यहां तक कि आदिवासी भी इसे उत्साह से मनाते हैं। होली का पर्व लगभग सभी हिन्दू त्योहारों में सर्वाधिक आनंद, उमंग और मस्ती भरा त्यौहार है।
संभाग | लोक नृत्य | लोक गायन |
मालवा | मटकी ,गरबा ,कहरवा , ,रजवाड़ी नृत्य इत्यादि | सांझा गीत ,हीड गायन ,भरथरी गायन |
बुन्देलखण्ड | बधाई ,राई ,रास नृत्य ,सहरा , कानड़ा(धोबी समाज ) ,कलश , नृत्य | आल्हा उदल ,हरदौल मनौती ,वैरायटा ,चौकड़िया ,जगदेव का पुवारा ,बंबूलिया |
बघेलखण्ड | सुआ ,दादर ,कलसा ,दोगरा नृत्य, केहरा नृत्य | विदेशिया गायन ,बसदेवा गायन ,,बिरहा गायन |
निमाड़ | गणगौर ,काठी नृत्य ,डांडिया नृत्य ,आड़ा -खड़ा नृत्य ,फेफरिया नृत्य , लेहंगी नृत्य , | कलगी तुर्रा ,मसानिया ,सांझा गीत ,हीड गायन ,भरथरी गायन |
चम्बल | लांगुरिया नृत्य |
कुछ जन जातीय लोक नृत्य भी है
1 करमा नृत्य -गोंड तथा बैगा द्वारा
2 अटारी नृत्य ,परधौनी नृत्य- बैगा जनजातियों द्वारा
3 दशेहरा नृत्य-बैगा जनजातियों द्वारा
4 हुलकी नृत्य -मुरिया जनजातियों द्वारा
5 ,ढांढल नृत्य ,थापती नृत्य -कोरकू जनजातियों द्वारा
6 भईम नृत्य -भारिया जनजातिओं
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